वंशवाद की अमर बेल है नावां विधानसभा सीट !
आजाद भारत में कांग्रेस के पहले राजस्थान प्रदेशाध्यक्ष रहे थे नावां के किशनलाल शाह
हेमन्त जोशी @ कुचामनसिटी। नागौर की राजनीति में भले ही परिवारवाद और वंशवाद अब काफी हद तक खत्म होने की स्थिति में हैं। लेकिन नावां की राजनीतिक बिसात अब केवल 2 परिवारों के बीच ही बिछी हुई है। इसमें रामेश्वरलाल चौधरी और हनुमानसिंह चौधरी के बेटे ही इसकी कमान खींच रहे हैं। पुराने 2 राजनीतिक परिवार अब सक्रिय राजनीति से बाहर है। जिले में राजनीति के शीर्ष पर रहा मिर्धा परिवार भी अब हाशिए पर आ गया है। लेकिन नावां सीट अब भी वंशवाद की अमर बेल बनी हुई है।
नावां विधानसभा सीट के राजनितिक इतिहास पर एक नजर-
नावां विधानसभा के इतिहास पर नजर डालें तो सामने आता है कि 71 सालों में यहां की विधायकी महज 4 परिवारों के इर्द-गिर्द रही है। इसमें पहला नाम है किशनलाल शाह, दूसरा नाम है हनुमानसिंह चौधरी, तीसरा नाम रामेश्वरलाल चौधरी और चौथा नाम है हरीश कुमावत। खास बात यह भी है कि अधिकांश बार प्रधान की सीट पर भी इन्हीं परिवारों का कब्जा रहा है। वर्तमान में कुचामन पंचायत समिति की प्रधान भी रामेश्वरलाल चौधरी की पोती और विजयसिंह चौधरी की बेटी सविता चौधरी है। इससे पहले लंबे समय तक महेंद्र चौधरी की भाभी और मां भी प्रधान रह चुके हैं। महेंद्र की पत्नी सुनीता चौधरी एक बार जिला प्रमुख भी रह चुकी है।
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पहले विधायक बने शाह– 1947 में जब भारत आजाद हुआ था तब डाबड़ा कांड में शामिल रहने वाले नावां के किशनलाल शाह को राजस्थान कांग्रेस का पहला प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया था। 1952 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में किशनलाल शाह नावां से पहले विधायक बनें थे। उन्हें बाद में सरकार की ओर से स्वतंत्रता सेनानी की उपाधी से भी नवाजा था। उसके बाद अगले चुनाव में भी वो ही विधायक बने। हालांकि द्विसदस्यीय प्रणाली के साथ अनुसूचित जाति के जेठमल भी विधायक निर्वाचित हुए।
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1962 में एक बार विधायक बनें हनुमानसिंह–
1962 के चुनाव से जातिवाद का प्रभाव शुरू हो गया। कांग्रेस ने मकराना के गुलाम मुस्तफा को टिकट दिया। वहीं स्वतंत्र पार्टी ने आयुवानसिंह, भारतीय जनसंघ के अलावा प्रधान रहे हनुमानसिंह चौधरी भी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मैदान में आए। पहली बार कांग्रेस को हराकर यहां वर्तमान कांग्रेस प्रत्याशी महेन्द्र चौधरी के पिता हनुमानसिंह निर्दलीय के रूप में विधायक बने। हालांकि सरकार में उन्होंने कांग्रेस को सपोर्ट किया। इसके इनाम में अगले चुनाव में कांग्रेस से टिकट भी मिली। लेकिन वो जीत नहीं पाए। पहले विधायक किशनलाल शाह ने स्वतंत्र पार्टी के प्रत्याशी के रूप में चौधरी को 1331 मतों से पराजित कर तीसरी बार विधानसभा में पहुंचने में सफलता हासिल की।
1972 में रामेश्वरलाल चौधरी बनें विधायक–
1972 में कांग्रेस की टिकट पर तत्कालीन प्रधान रामेश्वरलाल चौधरी उतरे। उन्होंने निर्दलीय हनुमानसिंह चौधरी को परास्त किया। वे 1977, 1980 और 1993 समेत 4 बार कांग्रेस और कांग्रेस (यू) से विधायक बने। इससे पहले रामेश्वरलाल चौधरी २ बार कुचामन पंचायत समिति के प्रधान भी रहे है। रामेश्वरलाल चौधरी 2013 में विधायक रहे विजयसिंह के पिता थे।
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1985 से हरीश कुमावत बने विधायक–
1985 में पहली बार कुमावत ने भाजपा का यहां से खोला खाता- 1985 में पहली बार भाजपा ने यहां खाता खोला। भाजपा से हरीश कुमावत पालिकाध्यक्ष पद से निलम्बित होने के बाद विधायक चुने गए। इसके बाद वे 1990, 1998 और 2003 में भी विधायक बने। 2008की हार के बाद 2013, 2018 में उन्होंने दांता रामगढ़ सीट से चुनाव लड़ा और दोनो बार हार का सामना करना पड़ा। पिछले दिनों उनका निधन हो गया था।
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…. तो क्या अब भी इन्हीं 2 परिवारों में सिमटी रहेगी नावां की राजनीति ?
अब तीसरी पीढ़ी ने भी संभाली विरासत –
पहले विधायक रहे किशनलाल शाह का परिवार राजनीति से बाहर हो गया। हनुमानसिंह चौधरी और रामेश्वरलाल चौधरी के परिवार की राजनीतिक विरासत उनके बेटे महेंद्र चौधरी व विजयसिंह चौधरी संभाल रहे हैं। जबकि हरीश कुमावत के परिवार से अब तक राजनीति में किसी ने खुलकर ताल नहीं ठोकी है। तीसरी पीढ़ी में विजयसिंह चौधरी की पीढ़ी वर्तमान में कुचामन पंचायत समिति की प्रधान है।
महेंद्र चौधरी –
प्रधान रहे हनुमानसिंह चौधरी 1962 में प्रधान रहते हुए निर्दलीय के रूप में तो पहली ही बार में विधायक बन गए। बाद में कांग्रेस की टिकट मिली तो सफल नहीं हुए। उनके बेटे महेंद्र चौधरी को कांग्रेस से 1998 व 2003 में टिकट मिलने के बाद भी सफलता नहीं मिली। 2008 में विधायक बने। 2013 के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था फिर 2018 के चुनाव में वह चुनाव जीतकर सरकार में उपमुख्य सचेतक और पहले जोधपुर और फिर सिरोही के प्रभारी मंत्री भी बनाए गए है।
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विजयसिंह चौधरी –
भाजपा से चुनाव मैदान में उतरे विधायक विजयसिंह चौधरी के परिवार ने 2003 व 2008 में कांग्रेस से टिकट मांगी। टिकट नहीं मिली तो पहले दारासिंह फिर विजयसिंह ने निर्दलीय चुनाव लड़ा। 2010 में प्रधान बनने के बाद विजयसिंह 2013 में भाजपा के टिकट पर विधायक बने। 2018 के चुनाव में हारने के बाद अब 2023 से वह भाजपा से ताल ठोकने के लिए चुनावी मैदान में हैं। गौरतलब है कि उनके पिता रामेश्वरलाल 4 बार कांग्रेस व कांग्रेस (यू) से विधायक चुने गए थे।
अगले शुक्रवार को पढ़ें किस्सा कुर्सी का पार्ट 7….