आज अचानक रात में नींद खुली तो चलने वाली ठंडी हवाओ का वो एहसास एक अलग सुख की अनुभूती था। सोचा थोड़ी देर छत पर घूमा जाये, क्या पता बारिश आने को हो। खुले आसमान को जब देखा तो लगा की ये तरुछाया का शामियाना किसका स्वागत कर रहा है?
तभी बरखा की आवाज आयी “मै जा रही हूँ,फिर आऊँगी। असल मे बरसात बूढ़ी हो चली है और क्वार का महीना आने को है। शरदागमन के समय जिन सफ़ेद वस्तुओं पर प्राचीन भारतीय साहित्य चर्चा करता है, उनके बारे आजकल की पीढ़ी नहीं जानती। प्राकृतिक श्वेतिमा अब नये लोगों के लिए मायने नहीं रखती, उनके लिए सफ़ेदी के अर्थ बदल चुके हैं।
‘क्वार’ को ‘कुमार’ भी कहा जाता है,लेकिन क्वार होता क्या है ? इसका का अर्थ, मतलब और मायने क्या हैं?और कौन सी सफ़ेद वस्तुएँ जो है जो इस मौसम में दर्शनीय हो जाती हैं और क्यों ?
क्वार के महीने को संस्कृत में आश्विन कहा गया है । इस नाम के पीछे अश्विनी कुमारों की कथा है। अश्विनी कुमार, जो युगल हैं और जिनका ज़िक्र वेदों में भी मिलता है, देवताओं के वैद्य कहे जाते हैं। उन्हीं के नाम पर सत्ताईस नक्षत्रों की भारतीय नक्षत्रमाला का पहला नक्षत्र ‘अश्विनी’ कहलाता है।
लेकिन इस अश्विनी नक्षत्र से आश्विन/कुमार/ क्वार मास का भला क्या सम्बन्ध है? भारतीय ज्योतिष के अनुसार यहाँ महीने के नाम उस नक्षत्र पर रखा जाता है,जिससे चन्द्रमा अपनी पूर्णिमा के समय संचरण करता है। अर्थ समझने के लिए आश्विन-पूर्णिमा के दिन अगर आप कैलेण्डर देखेंगे,तो चन्द्रमा को अश्विनी नक्षत्र से गुज़रता पाएँगे और इसी तरह से कार्तिक -पूर्णिमा को चन्द्रमा कृत्तिका,मार्गशीर्ष-पूर्णिमा को मृगशिरा और पौष-पूर्णिमा को पुष्य नक्षत्र में संचरण करता है। इसी तरह से आपको बारहों भारतीय महीनों के नाम उनके पूर्णिमा के चान्द्र नक्षत्रों से मालूम हो जाएँगे।
खैर, यह तो परम्परा की बात हुई। उस युग की, जब न दूरदर्शी-यन्त्र था और न आधुनिक खगोल विज्ञान। आज हम जानते हैं कि चन्द्रमा किसी नक्षत्र वग़ैरह में संचरण नहीं करता, नक्षत्र तो उससे कई-कई प्रकाश-वर्षों की दूरी पर हैं। ये नक्षत्र तो दरअसल विशाल तारे हैं और वह ठहरा पृथ्वी का अदना सा उपग्रह। वह बेचारा कहाँ से नक्षत्रनाथ हो गया।
वापस आश्विन के महीने पर आते हैं। यह महीना और ऋतु , जिसे शरद कहते हैं और जिसका सम्बन्ध सफ़ेदी से है, वसन्त के ठीक छह माह के बाद आते है। वर्षा रानी की जल-वर्षा अब थम चुकी है, काले बादल अब हवा हो चुके हैं । यही वह मौसम है जिसके लिए तुलसीदास लिखते हैं कि इस मौसम में खेतों में उगने वाली कुशा वर्षारानी के बूढ़े बाल हैं। कुश वह पहली श्वेत वस्तु है, जिसका शरदऋतु से सम्बन्ध है।
फिर बारी चन्द्रमा की आती है। चाँदनी रातें आपने बहुत देखी होंगी, लेकिन शरद पूर्णिमा सा चाँद पूरे साल आपको नहीं दिखेगा। इस रात के बारे में बहुत सी मान्यताएँ और प्रथाएँ हैं । बात छत पर रात भर होने वाली अमृतवृष्टि की हो, अथवा चाँदनी रात में नौका विहार की, शरतचन्द्र तो शरतचन्द्र ही है।
तीसरी श्वेत वस्तु हंस पक्षी है। आज जब गौरैया और सारस देखने के शहरों और गाँवों में लाले पड़ रहे हों , तो ऐसे में हंस-दर्शन के लिए चिड़ियाघर के अलावा तो कोई स्थान रहा नहीं। अनुराग का मामला हो अथवा विराग का, भारतीय साहित्य ने हंस से बहुत कुछ ग्रहण किया है , इसलिए वह उसका बड़ा ऋणी है।
फिर सारस की बात भला कैसे न की जाए । धान के लहलहाते पौधों के बीच अपनी प्रणयगाथा रचते इन पक्षियों का वर्णन किये बिना पुराने साहित्यकारों का शरदऋतु-वर्णन कदापि पूरा नहीं होता।
तालाबों (आजकल वो गंदे नालों मे तब्दील हो चुके हैं) में दिन में श्वेत कमल और रात में कुमुद खिलखिलाती है। शरत्ऋतु में रंगों की बात नहीं होती , केवल श्वेतिमा की होती है। न आसमान में इन्द्रधनुष दीखते हैं और न कहीं धरा पर रंगबिरंगे फूल मुस्कुराते हैं।निर्मल-निर्मेघ आकाश में विचरते चन्द्रमा का साथ नीचे शेफालिका , सप्तपर्ण और मालती के फूल देते हैं।
इसी शरद से देवी शारदा का चरित्र निकला है । सरस्वती वह है जो सर या सरोवर से युक्त है । यहाँ बात पहले ज्ञान के सरोवर की होती रही होगी, बरसात ख़त्म होने के बाद प्राचीन भारत के गुरुकुलों में शिक्षा ज़ोर पकड़ लेती होगी। तभी शारदा का ध्यान किया जाता होगा, जिसे विद्या की देवी माना जाता रहा होगा और सभी शरद-प्रतीक हंस, कमल, कुमदिनी, चाँदी, श्वेत वस्त्र आदि उनके साथ जोड़कर देखे जाने लगे होंगे।
दिलचस्प बात यह भी है कि शरद ऋतु का नायक चन्द्रमा सरस्वती का नहीं ,बल्कि पौराणिक सन्दर्भ के अनुसार लक्ष्मी का भाई माना जाता है ,क्योंकि उसकी उत्पत्ति भी समुद्रमन्थन से बतायी जाती है। सरस्वती का भाई तो दरअसल उसकी प्रकृति से एकदम अलग कामदेव है,जिसकी ऋतु शरद नहीं बल्कि वसन्त है,जो अपने तमान रंगों के संग छह महीनों पहले बीत चुकी है। लेकिन सरस्वती को अपने भाई कामदेव का साथ नहीं सुहाता,उसे तो शरतचन्द्र का सान्निध्य ही भाता है।
इन प्रथाओं-मान्यताओं-रीतियों-रिवाजों की दुनिया कितनी दिलचस्प जान पड़ती है ! इस दुनिया की भौतिकता में एक ख़ास बात यह थी कि उसका प्रकृति से सामंजस्य था। लोग मौज भी प्रकृति के अनुरूप करते थे ,उसके विरोध में जाकर नहीं। शरद में ग़रीब कुश के वस्त्र पहनते थे, जो थोड़े समृद्ध होते थे, वे शंख के आभूषण धारण कर लेते थे और जो धनकुबेर होते थे, वे मोतियों और चाँदी के।
अब शरद के नाम पर हमारे पास केवल सितम्बर है, जो धीरे-धीरे सेप्टेम्बर में बदलता जा रहा है। हम इसे यूरोपवासियों का ऑटम कहकर बुलाते हैं, जिसमें भारत के अधिकांश पेड़ अपने पत्ते नहीं गिराते। भाषा के साथ अँगरेज़ियत ओढ़ने का काम तेज़ी से जारी है। सवाल है कि हम नक़ली बनकर कितने दिन रह सकते हैं और क्या पश्चिम की अन्धी सांस्कृतिक नक़ल किये बिना विकास का हमारे पास कोई और तरीका नहीं है ?
साभार – सुधीर कौशिक