डॉक्टर रामावतार शर्मा @जयपुर।
एक पुरानी कहावत को सदैव याद रखने की आवश्यकता है जिसमें कहा जाता है कि जैसा खाओगे अन्न, वैसा ही रहेगा मन।
इस कहावत का आधार चाहे व्यापक वैज्ञानिक अध्ययन नहीं रहा होगा पर यह सामान्य सामूहिक बुद्धिमत्ता द्वारा उभरी धारणा हर वैज्ञानिक कसौटी पर सही प्रमाणित हुई है। अभी हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में अत्यधिक संसाधित भोजन ( अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड) के व्यापक उपयोग का लोगों के व्यवहार और जीवन पर पड़नेवाले प्रभावों का विस्तृत अध्ययन किया गया है जिसमें कुछ चौंकाने और सावधान करनेवाली बातें सामने आई हैं। हमें इस अध्ययन के परिणामों को इसलिए भी जानना चाहिए क्योंकि भारत में भी शहरों और कस्बों में तैयारशुदा भोजन के आदेश तेजी से बढ़ने लगे हैं और संसाधित आहार का उपयोग करना सामाजिक प्रतिष्ठा एवम् प्रेम स्नेह का संकेत माना जाने लगा है। भारत में हालांकि सामाजिक शोध नगण्य के बराबर होते हैं पर अपने आसपास नजर डालने पर ऑस्ट्रेलिया में हुए इस अध्ययन के निष्कर्षों को हमारे यहां भी आसानी से देखा जा सकता है।
सबसे पहले तो हमें संसाधित भोजन निर्माण उद्योग पर नजर डालनी होगी। इस तरह के भोजन का निर्माण करनेवाले आपकी भावनाओं का दोहन करते हैं। अपने विज्ञापनों में वे आपकी संतान के प्रति आपका प्रेम दिखाएंगे, पति पत्नी के नाजों नखरे प्रदर्शित करेंगे और कोई तो जबरदस्ती अपने आपको देश के हर घर का सदस्य घोषित कर देगा। परंतु याद रखना चाहिए कि हर कॉरपोरेट का प्रथम लक्ष्य अपनी कंपनी का मुनाफा होता है। मुनाफे का आधार सस्ता कच्छा माल, बेहतर कीमत और बहुतायत में होती बिक्री आदि होते हैं। कोई भी कॉरपोरेट मैनेजर एक एक भिंडी, आलू, गोभी आदि को छांट कर नहीं खरीद सकता है जैसा आप सब्जी की दुकान पर करते हैं। इसलिए गुणवत्ता के किसी भी मापदंड पर अति संसाधित भोज्य पदार्थ स्वास्थ्यवर्धक नहीं होते हैं। इनका उद्देश्य पेट को भरने से अधिक नहीं हो सकता।
औद्योगिक स्तर पर निर्मित भोजन में सस्ते अन्न और सब्जियां को इस तरह से पकाया जाता है ताकि वे जल्द ही खराब न हो जाएं। इसके लिए इनमें प्रिजर्वेटिव्स और स्टेबलाइजर्स डाले जाते हैं। अपनी बिक्री के स्तर को बनाए रखने के लिए इन्हें अत्यंत स्वादिष्ट बनाने के प्रयास किए जाते हैं ताकि ऐसा ब्रांड विकसित हो जो लंबे समय तक चले तथा लगातार मुनाफा कमाए।
दुनिया का हर व्यापार इन्ही आधारभूत बातों पर चलता है इसलिए खाद्य उद्योग कोई अपवाद नहीं हो सकता। ऑस्ट्रेलिया के अध्ययन में पाया गया कि संसाधित भोजन में कई ऐसे पदार्थों का उपयोग होता है जो किसी सामान्य घरेलू रसोई में कभी भी उपयोग में नहीं लिए जाते हैं और इस तथ्य पर विचार करने की आवश्यकता भी इस अध्ययन के कर्ताओं ने महसूस की है। उनके अनुसार इन पदार्थों और भोजन तैयार करने की इन विधियों का आपके जीवन पर बड़ा नकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना बनी रहती है। इन विधियों में मुख्य ध्यान ग्राहक की स्वाद इंद्रियों को संतुष्ट करने पर रहता है। इसके कारण मस्तिष्क की कई कोशिकाएं अनावश्यक रूप से उत्तेजित होती रहती हैं।
जहां घरेलू किचन के मुख्य भोजन में एक या दो प्रधान खाद्यान्य होते हैं वहीं इन औद्योगिक संसाधित भोजन में चार से पांच पदार्थ होते हैं ताकि स्वाद लंबे समय तक बना रह सके। परंतु यह भोजन बनाने की वैज्ञानिक विधि नहीं है क्योंकि स्वाद बनाने के चक्कर में भोजन की गुणवत्ता नष्ट हो जाती है। चूंकि ये बहुपदार्थ कार्बोहाइड्रेट, सैचुरेटेड फैट्स और त्वरित ऊर्जा से भरपूर होते हैं परंतु प्रोटीन तथा रेशे की इनमें बड़ी कमी होती है तो ये सब मस्तिष्क में प्रज्वलन यानि एक तरह की सूजन पैदा करते हैं। ऐसी सूजन यदि लगातार बनी रहे तो मस्तिष्क की कई कोशिकाओं के कार्य में बाधा पड़ने लगती है। ऐसा यदि लंबे समय तक होता रहे तो तकरीबन 37 प्रतिशत उपभक्ताओं में अवसाद यानि डिप्रेशन की शुरुआत हो सकती हैं। अति संसाधित यानि अल्ट्रा प्रोसेस्ड भोजन हृदय रोग, डायबिटीज, मोटापा आदि को तो बढ़ाता ही है पर इस अध्ययन से मानसिक स्वास्थ्य पर होने वाले खतरे भी सामने आने लगे हैं। यदा कदा उपयोग से तो कोई नुकसान नहीं है पर इनका नियमित उपयोग काफी हानिकारक हो सकता है। निर्णय तो हर एक व्यक्ति को स्वः विवेक से लेना है पर शोध और अध्ययन को नकारना महंगा और खतरनाक हो सकता है।