हेमन्त जोशी @ कुचामनसिटी। विधानसभा चुनाव 2023 में अभी 5 माह शेष है। राजनीतिक गलियारों में चुनावी चर्चा और सट्टा बाजार में चुनावी सौदेबाजी भी अब शुरु हो गई है। दरअसल हम बात करतें है नावां विधानसभा क्षेत्र की। यहां कांग्रेस में तो मुख्य रुप से एक ही नेता महेन्द्र चौधरी है, जो चुनावी रण के लिए तैयार है। लेकिन भाजपा में एक अनार सौ बीमार वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। उन्हें तो यहां तक लगता है कि इधर से टिकट मिली और जीत पक्की है। यदि ऐसा ही होता तो फिर दिग्गज नेता क्यों अपने राजनीतिक अनुभव और बरसों की तपस्या को ही अपनी राजनीति का आधार मानते हैं। कुछ नेता तो ऐसे हैं जिन्होंने पिछले दो सालों में ही राजनीति में कदम रखा है और वह विधायक के सपने देखने लगे हैं। जनता के बीच उनकी पहचान भले ही ना हो लेकिन पोस्टरों और अपने राजनीतिक क्रियाकलापों से वह खुद को विधायक का दावेदार मानते हैं।
कांटे की टक्कर में कई दावेदारों से भाजपा को हो सकता है नुकसान –
नावां विधानसभा में भाजपा और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर कही जा सकती है। जिसका आधार 2018 का चुनाव परिणाम है। कुमावत समाज के वोटों का ध्रुवीकरण, फिर भी महज 2256 वोटों से कांग्रेस की जीत इसका स्पष्ट उदाहरण है। जबकि कुमावत समाज मूल रुप से भाजपा का वोट बैंक है। अब हरीश कुमावत के निधन के बाद कुमावत समाज के बाबूलाल कुमावत पलाड़ा और देवीलाल दादरवाल टिकट की दौड़ में चल रहे हैं। हालांकि इनके लिए भी चुनाव जीतना आसान काम नहीं है।
महेन्द्र चौधरी की ताकत- 5 बार विधानसभा चुनाव लडऩे का अनुभव और राजनीतिक दृष्टि से पार्टी व चुनावी रणनीति में अच्छी पकड़।
जाट बाहुल्य सीट– नावां विधानसभा जाट बाहुल्य क्षेत्र है। जाट समाज से पिछली बार विधायक रह चुके विजयसिंह चौधरी, भाजपा में 2013 से सक्रिय नेता ज्ञानाराम रणवां चुनावी ताल ठोक रहे हैं वहीं नए चेहरों में डॉ. रजनी गावडिय़ा, राकेश बीजारणियां भी अपने-अपने प्रयास कर रहे हैं। यदा कदा नावां विधानसभा से चुनाव लडऩे के लिए नागौर के सांसद रह चुके सी.आर. चौधरी का नाम भी सूर्खियों में रहता है लेकिन यह बातें भी महज हवा हवाई है। जिसका धरातल पर कोई सीधा संबंध नहीं है। इसके अलावा भी कुछ नेता खुद को विधायक के लिए दावेदार मानते हैं लेकिन उनका जिक्र फिर कभी। लेकिन यह भी तय है कि भाजपा आलाकमान यदि नावां विधानसभा में सर्वसम्मति से टिकट दें और अन्य सभी नेता तन-मन से भाजपा के प्रति समर्पित रहें, तो भाजपा के लिए जीत की राह सुगम हो सकती है।
भाजपा की कमजोरी- टिकट की दावेदारी करने के लिए हर नेता तैयार, धरातल पर एकाध नेता को छोड़ दें तो किसी भी नेता की मजबूत पकड़ नहीं।
विधायक बनना कितना मुश्किल महेन्द्र चौधरी से समझें– जी हां, यूं ही विधायक बनना आसान होता, तो फिर महेन्द्र चौधरी को 1998 और 2003 में हार का मुंह नहीं देखना पड़ता। जबकि 1998 में तो प्रदेश में कांग्रेस की सरकार भी बनी थी। नाथूराम मिर्धा के करीबी और नावां विधानसभा के दिग्गज रामेश्वरलाल चौधरी के सामने कांग्रेस की टिकट लाना ही महेन्द्र चौधरी की पहली जीत थी, जो उन्हें गहलोत की नजदीकियों के कारण मिली थी। इन सबके बावजूद उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था। इसमें कहीं ना कहीं उनकी राजनीतिक कमजोरी ही थी। शुरुआत में जब महेन्द्र चौधरी टिकट लाए तो हरीश कुमावत के आगे उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था। गहलोत के ही कारण वह 2003 में भी कांग्रेस की टिकट को लेकर निश्चिंत थे। पार्टी में पकड़ और युनिवर्सिटी की राजनीति का अनुभव भी उन्हें शुरुआती चुनाव नहीं जीता सका।
(यह जानकारी इसलिए दी है कि भाजपा के नए चेहरे यह जान लें कि केवल टिकट से चुनाव जीत पाना आसान नहीं है)
अगले अंक में पढ़ें…. किस्सा कुर्सी का पार्ट – 3
किस्सा कुर्सी का पार्ट 1 पढ़ने के लिए क्लिक करें—बेनीवाल नावां से चुनाव लड़कर देख लें, पता चल जाएगा कौन किसका प्रतिद्वंदी
अबकी बार वर्तमान विधायक की जीत ओन्ली हवाई रहेगी धरातल पर उसका रिजल्ट सही नहीं है लोग उनके कार्यशैली से बहुत नाराज हैं असंतुष्ट है 35000 वोट से ऊपर नहीं ला पाएगा मन से लोग इसके साथ नहीं है