एक ब्राह्मण महापंचायत से बदला भाजपा का प्रदेशाध्यक्ष, अब सोशल इंजीनियरिंग ही ताकत

1
386
  • एक ब्राह्मण महापंचायत से बदला भाजपा का प्रदेशाध्यक्ष, अब सोशल इंजीनियरिंग ही ताक

    – कांग्रेस विकास के मुद्दे को बनाएगी जीत का आधार, 2003 और 2013 में  से भाजपा ने नागौर में जीती थी 9 विधानसभा सीट, 2018 में कांग्रेस को मिली जिले में 6 सीटें, मंत्री के तौर पर महेंद्र चौधरी बने जिले से उपमुख्य सचेतक

    हेमंत जोशी. कुचामनसिटी. प्रदेश में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों की आहट अब गली चौराहों पर सुनाई देने लगी है। जाति आधारित रैलियों के बहाने सभी समाज अपनी ताकत दिखाने का प्रयास कर चुके हैं। जिससे राजनीतिक समीकरण भी बदले बदले नजर आए। ब्राह्मण महापंचायत के बाद भाजपा ने अपना प्रदेशाध्यक्ष बदल कर सीपी जोशी को बना दिया। अब नेता भी शादी समारोह और आंदोलनों में हिस्सा लेते हुए अभी से जनसंपर्क में जुटे हैं। भाजपा में जहां सोशल इंजीनियरिंग की चर्चाओं ने एक बार फिर पार्टी में अंदरूनी भूचाल ला दिया है। वहीं कांग्रेस विकास के मुद्दे पर जनता के बीच जाने को तैयार है। दोनों दलों के अलावा इस बार रालोपा भी अपना कद बढ़ा रही है। गत चुनाव में 2 विधायक को जीत दिलाने वाली रालोपा इस बार आक्रामक रुप से चुनावी मैदान में उतरने को तैयार है। ऐसे में कांग्रेस व भाजपा दोनों ही दलों को जिले में पहली बार त्रिकोणीय मुकाबले के लिए तैयार रहना होगा।
    भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग के मुद्दे पर गौर करें तो जिले में जातिगत समीकरण को आधार मानकर ही टिकिट वितरण करने का मुद्दा कुछ नेताओं को भले ही रास नहीं आए। लेकिन 2003 और 2013 के विधानसभा चुनाव में जातीय सन्तुलन से प्रत्याशी चयन करने पर ही नागौर से 10 में से 9 विधायक भाजपा से जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। माना जा रहा है कि 2018 के चुनाव के वक्त सोशल इंजीनियरिंग को ताक में रखकर प्रत्याशियों का चयन किया गया तो परिणाम काफी निराशाजनक रहे। 9 सीट जीतने वाली भाजपा महज 2 सीटों में सिमट कर रह गई। लिहाजा पार्टी के बड़े नेता भी इस बार फिर से कुछ ऐसे ही बिंदुओं पर विचार कर सकते हैं।
    दरअसल, नागौर जिले के राजनीतिक परिदृश्य पर गौर करें तो साफ जाहिर होता है कि नागौर जिला शुरू से ही कांग्रेस का गढ़ रहा है। एक समय ऐसा भी आया जब पूरे उत्तरी भारत में कांग्रेस की करारी हार हुई थी। तब नागौर से ही कांग्रेस के सिम्बल पर नाथूराम मिर्धा सांसद चुने गए थे। उसी कांग्रेस के गढ़ यानी नागौर जिले में 2003 में भाजपा ने 10 में से 9 सीटों पर अपनी जीत दर्ज करवाई थी। तत्कालीन समय में भाजपा नेतृत्व ने जातिगत समीकरण को देखते हुए टिकिट का वितरण कर जाट, राजपूत, ब्राह्मण, कुमावत, जाट, मुस्लिम, मेघवाल समेत सभी वर्गों से प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा था। जिसके चलते ही भाजपा ने कांग्रेस को पटखनी दी थी। उस चुनाव में नागौर जिले से महज डेगाना सीट पर रिछपाल मिर्धा कांग्रेस से चुनाव जीते थे। ऐसे में यह भी कहा जा सकता है कि जब-जब उत्तरी भारत और मारवाड़ के नागौर में कांग्रेस कमजोर हुई तब केवल मिर्धा ही कांग्रेस की लाज बचा पाए थे।
    पिछले 15 साल में यूं बनते बिगड़ते रहे समीकरण–  2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को इसी नागौर जिले में 5 सीट मिली थी। उस समय कांग्रेस से मंजू मेघवाल को मंत्री बनाया गया। इस समय कांग्रेस इतना मजबूत नहीं हो सकी। यही कारण रहा की 2013 के चुनाव में कांग्रेस को मात खानी पड़ी और भाजपा ने नई रणनीति के तहत टिकिट वितरण किया और भाजपा को 9 सीटों पर जीत मिली। मात्र खींवसर से निर्दलीय विधायक हनुमान बेनीवाल जीते थे। इन चुनाव में कांग्रेस एकबारगी पूरी तरह से जिले से बाहर हो गई। 2018 के चुनाव में वापस कांग्रेस ने अपनी बढ़त बनाई और नए चेहरों को चुनाव लड़ने का मौका दिया था। जिससे कांग्रेस को बढ़त मिली और कांग्रेस के 6 विधायक चुने गए। भाजपा केवल 2 सीट पर सिमट गई। उस समय नई उभरकर सामने आई आएलपी को भी 2 सीटों पर जीत मिली थी।
    टिकट वितरण बड़ी चुनौती-
    विधानसभा चुनाव अभी एक साल दूर है। लेकिन सभी दसों विधानसभा सीटों के लिए भाजपा में एक अनार सौ बीमार वाली स्थितियां भी बनी हुई है। ऐसे में पार्टी को इस बार भी टिकट वितरण में पूरी सावधानी बरतनी होगी। हालांकि सरकार विरोधी लहर को भाजपा किस तरह भुना सकती है यह पार्टी की रणनीति पर निर्भर करेगा लेकिन इस बार कांग्रेस अपने विकास को मुद्दा बनाकर ही जनता के बीच उतरने की तैयारी कर चुकी है। सूत्रों से यह भी जानकारी मिली है कि इस बार भाजपा चुनाव में कुछ नए चेहरों पर दांव खेल सकती है। जिसमें युवा और महिला भी शामिल हो सकते है। हालांकि कांग्रेस के नेता फिलहाल प्रदेश में चल रही सियासी हलचल पर नजर बनाए हुए है। ऐसे में कांग्रेस के नेता आगामी चुनाव पर चुप्पी साधे हुए है।
    बड़ी चुनौती: एक अनार सौ बीमार
    भाजपा के सामने इस बार 2023 के विधानसभा चुनाव में दावेदार ही बड़ी चुनौती होंगे। अधिकांश विधानसभा सीटों पर 5 से अधिक दावेदार तो सामने आ चुके हैं, जबकि अभी चुनाव को एक साल बाकी है। ऐसे में भाजपा को दावेदारों में से प्रत्याशी का चयन करना बड़ी चुनौती रहेगा। टिकट वितरण के बाद बागी भी भाजपा के लिए बड़ा सरदर्द साबित होंगे। यानी बागियों को मनाना काफी मुश्किलों भरा काम होगा।

1 COMMENT

Comments are closed.